Sunday 21 May 2017

'होंठ पर वनवास ':- एक अवलोकन



'होंठ पर वनवास '
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'होंठ पर वनवास ' शीर्षक से मुझको अपने काव्यसंग्रह 'सबरंग ' की दुपदी याद आ गयी।

" ख़ामोशी की भी होती अपनी ज़ुबाँ
होंठ हिलते नहीं, बात हो जाती है ".

मान्यवर जयकृष्ण शुक्ल जी मितभाषी ज़रूर  हैं पर उनकी लेखनी में एक ऐसी पैनी धार , एक ऐसी असाधारण अभिव्यक्ति की क्षमता है जो चुपचाप प्रेम, प्रकृति, वैराग्य,  मानवता जैसे  ज़ज़्बातों को उकेरते हुए सीधे सीधे पाठकों के दिल में उतर जाती हैं।

बचपन से संचित अनुभव सब पाए
जो कागद के लेखे 
वक़्त वक़्त की भट्टी तप कर
नित्य बदलते रिश्ते देखे।I
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काव्यसंग्रह ' होंठ पर वनवास '  हमें कवि  की अद्द्भुत शायराना सूफी मिज़ाज़ , श्रृंगारिक काव्याभिवयक्ति , अंतर्मन को छूने वाली अनुभूतियों द्वारा अपनी अंतर्दृष्टि  से तो अवगत  कराती ही है साथ ही अलग-अलग रंगों में ,उन अभिव्यक्तियों में समाविष्ट  अनेक बिम्बों  को , एक विशेषज्ञ चित्रकार की तरह शब्दों में खूबसूरती से चित्रित कर जयकृष्ण जी के  एक प्रवीण रचनाकार का दायित्व का  भी निर्वहन करती दिखाई पड़ती हैं।

भाले का टून्न  हुआ एक एक दाना ,
भोली -भाली चिड़ियों शहर में न आना।I
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मृत्यु एक क्षण आनी है वह तो आएगी ,
जान मिली बेगानी है एक दिन जायेगी
भाव-भक्ति में मस्त-मलंग खो जाओ ,
नहीं कंही कुछ अनबन ,
साधो गीत सुनाओ।I
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हम शबनम की धुल हो गए ,
प्रिय जबसे तुम फूल हो गए। 
भ्र्मरों का चुम्बन , आलिंगन ,
मुझको चुभते शूल हो गए।I
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जीवन प्रेम है या प्रेम जीवन है यह पहेली हमेशा से रचनाकारों के लिए अभूझ रही है।  यह प्रेम कभी आध्यात्मिक रूप तो कभी श्रृंगारिक रूप धर कर कवि की काव्य प्रेम साधना को सफल बनाता है।  प्यार एक शब्द है जो सभी रचनाकारों के लिए  एक अस्पष्टीकृत बहुआयामी भावनात्मक विषय का स्तोत्र रहा है।  भले ही इस रहस्यपूर्ण शब्द पर सामग्रियों का भण्डार ही क्यों ना  उपलब्ध हो, कवियों के लिए यह शब्द हमेशा से गद्य और पद्य के नवीन  सृजन में सहायक रहा है।

 ‘होंठ पर वनवास में भी कविश्रेष्ठ जयकृष्ण शुक्ल जी ने , अपनी रचनाओं में  प्यार के, नेह के, स्नेह के श्रृंगारिक , आध्यात्मिक और सूफियाना स्वरूपों को साकार करने के साथ साथ मानवीय विसंगतियों पर एक गहरी चोट , आधुनिकता में असमानता पर परोक्ष प्रहार, अध्यात्म का रस लिए कवि की पुकार लिए, इस काव्यसंग्रह के द्वारा पाठको को एक असीम आनंद की अनुभूति कराई है।

होंठ पर वनवास  जयकृष्ण शुक्ल जी के विचारों, विश्वासों, अवधारणाओं, छापों और छवियों का एक विस्तार है, जो धीरे-धीरे उनकी  तीक्ष्ण लेखनी के साथ ही गीत और ग़ज़ल  के माध्यम से विकसित होते हैं और काव्य लालित्य एवं आकर्षण को अंत तक बरक़रार रखतें हैं।

साहित्यानुरागी जयकृष्ण शुक्ल जी को हार्दिक शुभकामनायें देते हुए और द पोएट्री सोसाइटी ऑफ़ इंडिया द्वारा प्रकाशित इस काव्यसंग्रह  की  अपार सफलता की कामना करते हुए :-

त्रिभवन क़ौल

स्वतंत्र लेखक- कवि
21-05-2017

1 comment:

  1. Anam Das
    आकर्षक, अभूतपूर्व एवं उदात्त !
    May 21 at 10:48pm
    ------------------------fb/TL

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