Wednesday 31 July 2013

घेरे के बाहर

घेरे के बाहर:-- कश्मीरी हिन्दू समाज में युवा पीड़ी की सोच में रहे बदलाव की कहानी है. इस सोच का  क्या कारण है और कश्मीरी हिन्दू समाज का भविष्य  क्या होगा ? इन प्रश्नों के हल तलाशने की  इस कहानी के माध्यम से एक कोशिश  मात्र है.
--------------------------------------x--------------------------------------------x---------------------------------------------

घेरे के बाहर

शीला राजदान, ऑफिसर इंचार्ज प्रबंधनदरवाज़े पर लगी  अपने नाम की ताम्बे की पट्टिका को देख कर शीला का    मुँह   कडवाहट से भर गया. ताम्बे की वह नाम पट्टिका और उसके नाम के ठीक नीचे एक छोटी सी घुंडी जो बाएं से दायें सरकती हुई ' इन और आउट ' को दर्शाती है. ' इन और आउट'. हाँ, इन दोनों के बीच ही तो उसकी जिंदगी अटकी हुई है. लगभग तीन साल से घर का हर व्यक्ति इस कोशिश में लगा है की किसी तरह से शीला की सतही जिंदगी की नाव तो धक्का लग जाये. बोब्जी, अम्मा, जिगरी, बाय्गाश, बाजान सब के सब उसकी नैया को पार करवाने में लगे हैं. चाहते तो सब घर थे की शीला का रिश्ता उनके घर में हो, शीला उनके घर की बहू बने और उनके घर एक टकसाल खोल दे. साथ ही इशारों इशारों में भरपूर दहेज़ की मांग भी उठा देतेजब शीला कहती की बड़ी बहन होने के नाते  उसकी छोटी बहन की शादी करवाना उसका फ़र्ज़ है और वह अपनी तनखा का कुछ हिस्सा तब तक अपने माँ-बाप को देती रहेगी जब तक कि मीना की शादी हो जाये तो सब के सब पीछे हट जाते. दहेज़ का दानव फिर कुलबुला कर बाहर जाता. फिर तो कल तक जो लड़की उनकी नज़रों में समझदार थी, अपने पैरों पर खड़ी थी, व्यवहारिक ज्ञान में माहिर थी, वोही लोग शीला को  एक तेज़ तरार लड़की के रूप में देखने लगे.
" भला होने वाली बहु की ऐसी हिम्मत की वह होनेवाली ससुराल के ऊपर अपनी राय थोप सके.”
 यह सोच हर और शीला की शादी में रोड़ा अटकने के रूप में काम करने लगी. पर शीला को इसकी कतई  परवाह थी." जाने लोग शर्तों पर शादी रचवाने का सपने क्यूँ देखते हैं. लड़के कि इच्छा और  भलाई का ख्याल  रखा जाता है और ही लड़की की आशाओं का आदर. बस अपनी अपनी आशाओं को पूरा करने में लगे रहते हैं. बोब्जी को कितना समझाया पर बोब्जी मानते ही नहीं. हर हफ्ते कोई कोई आया होता है उसको देखने. अकेला दुकेला हो तो कोई बात नहीं, पूरे लाव-लश्कर के साथ आता है. बड़ी आदर्शवादी बातें करते हैं.सोशिलिज्म का बखान करते हैं, लेलिन और मार्क्स की दुहाई देते हैं पर पूंजीवाद के गुण गाते हैं.गाँधी के असूलों को जानते हैं पर ग्लैमर की दुनिया के कायल हैं. औरतों की आज़ादी और बराबरी के हक के तरफदार हैं पर अपनी पत्नी को घर की मर्यादा में ही देखना चाहते हैं. पत्नी नौकरी जरूर करे पर सारे का सारा पैसा पति या सास के  हाथ में ही होना चाहिए. बोब्जी को, अम्मा को, जिगरी को दुःख तो बहुत होता है कि कंही बात नहीं बन पाती, पर शीला भी करे तो क्या करे ? कभी  जहाँ किसी  लड़के से बात जमती नज़र भी आती है वहां लड़का अपनी शर्ते रख देता है. सब के सब मेल चौवानिस्ट या फिर मामाज बोयज़ के उदहारण बन कर रह जाते हैं.    जानबूझ कर वह अपने को उस खवैये के हवाले भी तो नहीं कर सकती जो जिंदगी की लहरों के बीच नाव का संतुलन तक कायम रख सके, खेना तो दूर रहा. सो इन एंड आउट.”
--------------------------0---------------------------0---------------------
"
मैडम"
"
हूँ" शीला चोंकी. " अरे रामधन, कबसे खड़े हो ?"
"
अभी आया हूँ. सुम्रेश बाबु आप को याद कर रहें हैं."  रामधन बोला.
"
अच्छा तुम चलो, मैं आती हूँ," शीला ने अपना दुपट्टा ठीक किया और सुम्रेश के कमरे की ओर चल दी. शीला सोचती जा रही थी." सुम्रेश, उसका कुलीग. कितनी बार उसने कोशिश की वह शीला के दिल में अपनी जगह बना ले पर हमेशा शीला ने उसको पसंद करते हुए भी संस्कारवश उसे कभी बढावा नहीं दिया. सुंदर है , सुशील है, स्पष्टवादी है ओर सबसे बड़ी बात यह की बहुत जल्द ही हर वातावरण में अपने आप को ढाल लेता है. एक बार तो सुम्रेश ने  इशारों इशारों में उसको प्रोपोज भी कर दिया था. कोई शर्त नहीं, कोई बन्धन नहीं. शीला तो कभी की हाँ कर देती  पर संस्कारो से जकड़ी कश्मीरी लड़की, माँ-बाप की इच्छा का मान करने वाली, नातों-रिश्तों ओर समाज का ख्याल रखने वाली ने उसे नकार दिया.. वह चलती जा रही थी ओर सोचती जा रही थी. लेकिन कब तक वह अपने माँ-बाप की परेशानी का कारण बन कर रहे ."क्या मुसीबत है. ओह माय गोड़हेल विथ आल ऑफ़ धिस."
--------------
x----------------x--------------x-------------x-------------x---------

सब्ज़ार नाम है उस कालोनी का. एक बड़े शहर के एक छोटे से हिस्से को घेरे बस हरियाली और नदियों से महरूम  छोटे कशीर की याद दिलाते हैं.छोटे बड़े कश्मीरी पंडितों/भट्टो के घर. कुछ पुराने पर  ज्यादातर विस्थापितों/ स्वदेशी शरणार्थीयों के घर. उस छोटी सी अपनी दुनिया में सिमटे छोटे बड़े नाम. उपरी तौर से एक दुसरे से करीब सम्बन्ध रखने वाले पर हमेशा कुछ दूरी का आभास देते हुए, कुछ अपनी मान्यताओं एवं पुरानी परम्पराओं से जुड़े, कुछ नयी धारा  में बहने वाले तो कुछ दोनों विदाओं को साथ ले कर चलने वाले कश्मीरी हिन्दूओं का एक नया समाज.
-----------------------0---------------------------------0------------------------

एक बड़े शहर की विशेषता यह होती है की वह अपनी छतरी के नीचे सबको आश्रय तो देता है पर  उनसे उनकी इन्संयियत के जज्बे को, मासूमयत, आचार- विचार, चाल-ढाल को भी बदल कर रख देता है. दिली एहसास कम और बनावट का मुल्लमा हर मनुष्य के कार्यकलापों पर चढ़ जाता है. चाहे कोई त्यौहार हो, शादी-ब्याह का समारोह हो, जनम दिन की पार्टी हो या फिर मृत्यु पर शोक जताने पहुंचे हों, दबी दबी जुबान मे बात करना, उगते सूरज को सलाम करना, जिसकी थाली में खाना उसी में छेद करना, कुछ मतलब होते हुए भी हर किसी की टांग खीचना, हमेशा एक दुसरे ही होड़ में रहना यह एक बड़े शहर के ही आतंरिक मानसिकता का अंग है जिससे सब्जार भी अछूता नहीं रह सका.
इसी मानसिकता का शिकार शीला को होना पड़ा. लोग कानाफूसी करने लगे. " राजदानो की लड़की शीला की शादी क्यूँ नहीं हो रही ?" "लड़की की उम्र होती जा रही है. उसकी शादी जल्द से जल्द होनी चाहिए." घर में  नौकरीपेशा जवान लड़की को बिठा रखा है" " हाँ भाई हाँ, कमाऊ है , जितनी देर से शादी करंगे, उतना ही पैसा इक्कठा करेंगे." " और नहीं तो क्या. लड़की के लिए दहेज़ जो बनाना है." यह सब बाते जब शीला के पिता सोमनाथ के कान तक पहुँचती तो उन्हें यह लगता की कही शीला को  एम सी . एम बी    तक पढ़ाकर गलती तो नहीं कर दी. सोमनाथ इसी उधेडबुन में थे की सोमनाथ की पत्नी गुणवती ने उनके सामने शीर चाय रख दी.

" तुमने पी ?" सोमनाथ ने पूछा
"
हाँ. रूपा आयी थी, उसके साथ पी ली." गुणवती सोमनाथ के सामने ही सोफे पर बैठ गयी.
"
कुछ कह रही थी ?"
"
हाँ. अपनी बहन के जेठ के लड़के की बात कर रही थी. किसी सरकारी कंपनी में डिप्टी मेनेजर है." गुणवती अपनी बचपन की सहेली रूपा सप्रू के आने से ज्यादा खुश नहीं लग रही थी.
"
तो फिर ? तुमने क्या सोचा ?" सोमनाथ ने बड़ी ही उत्सुकता से पूछा.
"
रूपा ने बात छेड़ी थी. पर इशारों इशारों में रूपा उनके दहेज़ के लालची होने की बात कर गयी.  लगता है यहाँ भी बात नहीं बनेगी........"
"
रूपा ने शीला के बाबत कुछ नहीं बताया उन्हें. शीला की क़ाबलियत, अच्छी नौकरी, अच्छी तनखा, अच्छा ओहदा." सोमनाथ मानो एक तरह से गुहार लगा रहा हो.
"
सब बताया. मैं कोई बेवकूफ नहीं हूँ. पर कौन समझता है.' आशातो सबको होती है" गुणवती ने निराशा भरे स्वर में कहा. हाँ आशा. यह आशा ही तो सब दुखों की जड़ है. अगर किसी से किसी भी तरह की आशा नहीं रखी जाये तो जिंदगी का जीना कितना आसान हो जाये. यह आशा नामक अमरबेल ही तो हमारी जिंदगी को एक घुन लगा देती है.
. सोमनाथ  ने गुणवती की निराशा को कम करने के लिए उसका हाथ थाम लिया.
"
तुम घबराओ मत. इसका मतलब यह तो नहीं.........."
"
इसका मतलब यही है." गुणवती सोमनाथ की बात काट कर बोली." की..... तुम्हे लड़की को इतना पढाना नहीं चाहिए था. सिर्फ बी पास होती तो किसी भी छोटे मोटे घर में खप जाती. दहेज़ तब भी देना था और अब भी देना है.  जितना पढाई लिखाई और ट्रेनिंग पर खर्च हुआ उतने में उसका आधा दहेज़ बन जाता. अब भुगतो. लड़की को पढ़ाया, लिखाया, अफसर बनवा दिया. अब लड़का भी उसी के बराबरी का खोजो. मिलने को मिलते क्यूँ नहीं. एक छोड़ दस दस.....पर है हममें तुममें इतनी ताकत....?" गुणवती का प्रलाप अभी जारी ही रहता यदि अर्ज़ननाथ कमरे के अंदर ना जाता. उसको देखते ही पति- पत्नी चुप हो गए. अर्ज़ननाथ, सोमनाथ का लंगोटिया यार  होने के नाते, घर की मौजूदा हालात के बारे में सब जनता था.
"
शीर चाय पियोगे ?" सोमनाथ ने सरसरी तौर पर पूछा.
"
नहीं, मगल( कहवा) चाय हो तो पी लूँगा." अर्ज़ननाथ ने गुणवती की तरफ देख कर कहा.
"
अभी बना कर लती हूँ." गुणवती उठ कर आँखों से सोमनाथ को अर्ज़ननाथ की तरफ इशारा कर रसोईघर में चली गयी.
"
कहो अर्ज़ननाथ, शीला के बारे में कुछ किया ?"  सोमनाथ ने ठंडी होती हुई चाय की चुस्की लेते हुए पूछा.सोमनाथ के मन में एक आशा थी जिसे अपने दोस्त के द्वारा पूरी होते देखना चाहता था.
"
कई जगह बात चला रखी है. तुम तो जानते हो हम सब  अपने समाज के घेरे में रह कर ही अपने सब कार्य करते थे. पर जबसे हम कश्मीर छोड़ कर इस बाहरी दुनिया में आये हैं, मैं देख रहा हूँ कि नए नए माप दण्डों का, नयी नयी मान्यताओं का पदार्पण हमारे समाज में तो हो रहा है, पर जब शादी ब्याह की बात आती है तो वही अपना पुराना राग." अर्ज़ननाथ थोड़ी देर के लिए चुप हो गया जब उसने गुणवती को एक खोसू( कांसे का प्याला) में चाय लाते देखा. गुणवती ने चाय और एक प्लेट मिक्सचर रख कर सामने ही बैठ गयी.अर्ज़ननाथ ने खोसू उठाया और थोडा मिक्सचर मुंह में डाला.
"
हाँ तो मैं कह रहा था की शीला बिटिया की कई जगह बात चलायी. शीला से भी बात की. नयी पीढ़ी की लड़की है . पर उसकी समझ में कोई लड़का आता ही नहीं. और जहाँ उसकी समझ में कोई लड़का आता भी है वहां वे लोग मुंह फाड़ देते हैं. सारा का सारा मामला लेन देन पर अटक जाता है. तुम तो जानते ही हो. साफ़ तौर पर नहीं कहते पर दूसरों का उदहारण दे कर इशारों ही इशारों में सब कुछ कह देते हैं. अब तक  लड़के पर हुए खर्चे का बयान करते नहीं थकते. और जहाँ थोड़ी बहुत बात जमने लगती है वहां शीला लड़के तो देख साफ़ मना कर देती है." अपनी बात पूरी कर  अर्ज़ननाथ ने एक ही झटके में चाय समाप्त कर दी. गुणवती भला अपनी लड़की के बारे में सुन कर कहाँ चुप रहने वाली थी.
'
अरे तो क्या हम अपनी बेटी को किसी भी लूले, लंगड़े, गूंगे,बहरे, नाकारा लड़के से ब्याह दें ?" गुणवती मानो विफर सी पड़ी. वह और भी कुछ बोलती मगर सोमनाथ के इशारे पर चुप हो गयी.
" हाँ अर्ज़ननाथ मुझे पता है." सोमनाथ ने खोसू को नीचे रखते हुए कहा." पर लड़का भी तो ढंग का होना चाहिए. आखिर शीला में कमी क्या है. एम सी . एम बी   है. अच्छे ओहदे पर काम कर रही है. आठ लाख सालाना का पैकेज है. और क्या चाहिए लड़के वालों को."
"
क्या चाहिए लड़के वालों को ?," गुणवती मानो मौके की तलाश में थी." एक छत है तुम्हरे पास, तुम्हारी अपनीकिराये की छत पर कोई ध्यान नहीं देता. कितना कहा की एक अपना घर इसी कालोनी में ले लो. थोडा बहुत पैसे जो कश्मीर के मकान को बेच कर आये थे उससे बनवा लो पर इनको तो लड़की को उच्च शिक्षा देने की लगन थी....."
सोमनाथ से अब और बरदाश्त नहीं हुआ," क्यूँ तुम शीला की शिक्षा के पीछे पड़ गयी हो. लड़की को अनपढ़ रखता क्या? बारवी या बी पास करते ही उसे किसी खूंटे से बांध देता क्या? घुट घुट कर मर जाती वह. जहाँ से पहला रिश्ता आया था.दहेज़ के लोभी थे वह. उन्हें लड़की से ज्यादा लड़की का मकान प्यारा था. जब उन्हें पता चला की हमारा मकान किराये का है तो एकदम पीछे हट गए. हमारी शीला कम से कम अपने पैरों पर तो खड़ी है. किसी की मोहताज तो नहीं. तेरे मेरे सर उसका बोझा है क्या ? दुसरे रिश्ता भी तो आया था. सब कुछ ठीक था. टेकनी भी मिल गयी थी. पर लड़के ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि वह किसी मद्रासी लड़की से  प्यार करता था. तीसरा रिश्ता . वाह क्या रिश्ता आया था. हमें कुछ नहीं चाहिये. लड़की को आप बस एक साडी में ही भेज देना. पर लड़का  कम पढ़ा लिखा तो था ही, कमअकल भी. डाक्टरी इलाज करवा रहे थे उसका. वह तो भला हो रूपा का जिसने ये सब पता लगा कर हमें बताया. अब इसमें मेरा या शीला का क्या कसूर. हमारा फ़र्ज़ है की हम कोशिश करते रहें.  जानबूझ  कर मैं लड़की को अंधे कुंए में नहीं धकेल सकता. बाकि सब तुम भगवान पर छोड़ दो......." सोमनाथ की इस धाराप्रवाह को अर्ज़ननाथ और गुणवती बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे की ताली की ध्वनी से कमरा गूँज उठा.
--------------x---------x------------------x---------x-------------------x----------------


"
थ्री चीर्स फॉर बोब्जी," शीला की छोटी बहन मीना ने कमरे में कदम रखा और  जूट का बैग  तिपाये पर रख कर माँ से लिपट गयी. गुणवती हैरान थी की आज यह लड़की इतनी जल्दी  कालेज  से वापस कैसे गयी.
"
क्या बात है, रोज आठ आठ बजे आने वाली इतनी जल्दी घर कैसे गयी ?"
"
गेस्स करो माँ, गेस्स करो." मीना छोटे बच्चो की तरह बोली. सोमनाथ और अर्ज़ननाथ माँ-बेटी का यह भरत मिलाप का आनंद उठा रहे थे. मीना बोली.
"
दीदी का फ़ोन आया था कि मैं जल्दी से घर पहुँच जाऊँ.    वह शायद किसी को आपसे मिलवाने ला रही है     मीना मज़े ले ले कर कहने लगी. सोमनाथ, अर्ज़ननाथ और गुणवती कि समझ में कुछ नहीं रहा था.
"
तुम्हारा कहने का मतलब क्या है, मीना. साफ़ साफ़ कहो कि क्या बात है ?" सोमनाथ का धर्य जैसे जवाब दे गया हो.
 
मीना अब  गम्बीर हो गयी. कुछ क्षण वह चुप रही और फिर सोमनाथ और अर्ज़ननाथ कि और देख कर बोली.
"
मतलब यही कि बोब्जी कि मैंने आपकी  सारी बातें सुन ली , हर व्यक्ति समाज से जुडा हुआ है. एक एक व्यक्ति मिलकर यह समाज बनाता है. स्त्री और पुरुष का इसमें बराबर का योगदान है. फिर यही लोग समाज के नियम, कायदे-कानून बनाते हैं. माँ-बाप भी इसी समाज के कानूनों से बंधे होते है. एक माँ-बाप का फ़र्ज़ अपने बच्चों को स्वस्थ रखना, अच्छी से अच्छी शिक्षा देना, उनको अपने पैरों पर उनको खड़ा करके, समाज का ही एक ज़िम्मेदार नागरिक बनाना होता है.उसके एवज़ में समाज का भी तो कुछ फ़र्ज़ होता है. पुराने रीति रिवाजों पर पुन: सामायिक ज़रूरतों को नज़र में रख कर विचार करना. युवा पीड़ी कि मनस्थिती को समझना, अपने संस्कारों का, अपनी संस्कृति का एवं अपने धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं  का नयी परीस्थिति के अनुकूल परिभाषित करते हुए हर प्रकार से नयी पीड़ी के विचार धारा का सम्मान करते हुए  बचाए रखना, यह भी तो समाज का फ़र्ज़ है."
"
तुम कहना क्या चाहती हो बेटी ?" अर्ज़ननाथ विस्मय से उस लड़की कि तरफ देख रहा था जिसके मुंह में कल तक ज़बान नहीं थी.
"यही की जिस समाज की बात हम कर रहें हैं उस समाज को भी तो समय के साथ साथ बदलना होगा. क्या समाज का कोई फ़र्ज़ उनके प्रति नहीं बनता जिनके बल पर यह समाज बना है.पर जब समाज ही अपने फ़र्ज़ से विमुख  हो जाये, छोटे बड़े में भेद करने लग जाये, योग्यता की जगह आर्थिक दशा का सम्मान होने लगे, तो क्या आपको नहीं लगता कि हमारे समाज का पूरे का पूरा ढांचा ही चरमराने के कगार पर है."
" क्या फिलोसोफी बगार रही है तू.? गुणवती ने मीना को  अर्ज़ननाथ की ओर इशारा करके डांटने के अंदाज़ में बोली.
" यह फिलोसोपी नहीं है माँ. यह सत्य है. एक कड़वा सत्य. यथार्थ की धरातल पर अचल सत्य. शीला दीदी की ही बात लेलो. आप लोगों ने अपना माँ-बाप होने का फ़र्ज़ पूरा किया. अपने समाज को समाज के उत्थान  के लिए एक होनहार, पढ़ी लिखी शीला दीदी के रूप में एक  सदस्य प्रधान किया पर उसी समाज के अन्य सदस्य अपने आदर्शवादी विचारों को ताक  पर रख, शीला की भावनाओं को, उसकी इच्छाओं का और उसके माँ-बाप की आर्थिक समस्याओं का पुराने रीति रिवाजों और परम्पराओं के नाम पर उनकी राह में रोड़े अटकाने का कार्य करने में लगे हैं. एक बाज़ार बना दिया है अपने समाज को हमनेलड़की को केवल एक शोपीस बना कर शोकेस में रख देते हैं की आओ और देखो. और लड़के को हाट में बिकने को तैयार माल के तौर पर परोसा जाता है जिसका एम् आर पी फिक्स्ड है कि जिसमे दम हो, दाम दे और माल ले जाए." एक साथ इतने बोलने पर मीना कि सांस फूल गयी. उसने पास पड़े गलास... से पानी पिया. सोमनाथ, गुणवती और अर्ज़ननाथ उसकी और देखते रहे.
----------------------0---------------------------------------0---------------------------

 कमरे का सन्नाटा तब भंग हुआ जब अर्ज़ननाथ के लड़के शैलेश ने कमरे के अंदर कदम रखा. सबको नमस्कार कर जब उसने जब सबकी चुप्पी  का कारण पूछा तो अर्ज़ननाथ ने सारी बातें उसे बता दी. बात समाप्त होते ही मीना ने शैलेश का हाथ पकड़ा और बोली." अब तुम्ही बोलो शैलेश भाई, क्या मैंने कुछ गलत बोला? शैलेश ने एक बारी मीना की और देखा और मुस्कुरा दिया.," वाह ! क्या विचार है? वैसे तो तुम ठीक कह रही हो. इस सामाजिक बाज़ार में हर साल लड़कियों और लड़कों की फसल पहुंचाई जाती है. हर लड़के का अपना साइनबोर्ड होता है. डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी कर्मचारी, व्योपारी इत्यादि इत्यादि.सबका अपना अपना प्राइस टैग होता हैसेल की कोई गुन्जायिश ही नहीं. लड़की क्या है, कैसी है , उसका स्वभाव कैसा है, वह चाहे पी एच डीहो या मेट्रिक, आई एस  हो या एक क्लेर्क, घरलू हो या नौकरीपेशा, व्यापारी हो या नेता. कोई फरक नहीं पड़ता. लड़की के माँ-बाप को लड़की को जन्म देने की फीस तो चुकानी ही पड़ती है. शादी के बाद भी कभी त्योहारों के रूप में, कभी रिश्तेदारी निभाने के रूप में, कभी खुद जच्चा बनने की ख़ुशी में तो कभी नातेदारों के यंहा बच्चा होने की ख़ुशी में, यह प्रूग-वह प्रूग. अगर यह फीस समय पर चुकाई जाये तो उन लड़कियों का हॉल तो  रोज़ आप अकबारों में पड़ते ही हैं. सब अपनी अपनी शर्ते रखते हैं. मंजूर हो तो  गठबंधन  हो सकता है फिर चाहे टेक्नि मिले या मिले.   सिर्फ लड़कियां ही इस मानसिकता का शिकार ही नहीं हो रही, लड़के भी इस के चपेट में आने लगे हैं. उनकी पसंद नापसंद को नज़रन्दाज़कर, अपनी बात मनवाने कि कोशिश करना, भूख हड़ताल कि धमकी देना, आर्थिक समानता होते हुए भी , अपने  को आर्थिक रूप से सम्पन बताना, यह सब दो नयी जिंदगी के मिलन में    ज़हर घोलने  का काम करते हैं. बाहरी समाज में तभी तो लिव इन रिलेशनशिप, अपनी पसंद का जीवन साथी स्वयं ढूँढना, लड़की का लड़के के साथ भाग कर   शादी करना , यह सब होने लगा  है. वह दिन दूर नहीं कि जब हमारे समाज की युवा भी इस और अग्रसर होने लगें.”
"
बिलकुल ठीक कहा भाई. शादी से ज्यादा तो  या तो तलाक होने लगे है अब या फिर हमारे समाज के लड़के लड़कियां इस घेरे से बाहर निकल अन्तरजातीय अथवा अन्तरराष्ट्रिय जीवनसाथी ढूँढने में लगे हैं.” मीना शैलेश तो अपने से सहमत देख बहुत खुश थी.
सोमनाथ और अर्ज़ननाथ दोनों ही चुप रहे. अर्ज़ननाथ समझ गया था की शैलेश की बातों का क्या मतलब था. शैलेश की शादी का होना और शैलेश का शादी के लिए मना कर देना, इन सब के लिए वह मन ही मन अपने तो ज़िम्मेदार मानता था. पुराने बुज़र्ग  हमेशा कहा करते थे कि यदि लड़की, लड़के को सुखी देखना चाहते हो तो लड़की को अपने से थोडा ऊँचे घर में ब्याहो और बहुअपने से थोडा नीचे के घर से लाओ. इस असूल को ताक पर रख और शैलेश की पसंद का ख्याल करके अर्ज़ननाथ ने बड़े बड़े हवाई किले बनाये थे जो सब के सब डेर हो कर रह गए. इसका असर शैलेश पर ऐसा हुआ की उसने शादी करने से ही इंकार कर दिया.
" बस बस. बहुत हो गया. कॉलेज यूनियन की सचिव क्या बन गयी, ज़बान भी गज भर की हो गयी तेरी." गुणवती कुछ गुस्से में बोली. वह पहले से ही शीला के बारे में परेशां थी ऊपर से मीना और शैलेश की भाषणबाज़ी.
"
नहीं माँ, ज़बान तो उतनी ही छोटी है, पर हाँ आप लोंगों के गुप-चुप के सामाजिक नियम  ' आशा' के नाम पर मीलों लम्बे होते जा रहें हैं. जिस पर चल कर सोमनाथ और गुणवती जैसे हजारों माँ-बाप अधमरे हो कर रह जाते हैं. टूट जाते हैं. यही कारण है की लड़कियां अपनी ही राह खोज इस सामाजिक घेरे से बाहर निकल अपना नया संसार बनाने को तत्पर रहती हैं......" मीना बोलती ही जाती अगर बाहर एक वाहन के रुकने की आवाज़ आती. " शायद दीदी गयी....." वह झटके से उठी और बाहर चली गयी.
------x------------x--------------------------------------x---------------------------------------------x

 
गुणवती , अर्ज़ननाथ, शैलेश तो उत्सुकता से बाहर के दरवाजे की ओर टिकटिकी लगाये रहे जबकि सोमनाथ किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था. उसे मन ही मन डर सा लग रहा था. आजकल की युवा पीड़ी सामाजिक नियमों को ताक पर रख क्या कुछ  कर बैठे, कुछ पता नहीं होता. कौन है इसका जिम्मेदार ? यह समूचा समाज, यह युवा पीड़ी जो पाश्चात्य रंग में रंग कर अपने संस्कारों को भूलने लगी है, या फिर परिवार विशेष जो अपनी राय के अनुसार ही अपने बच्चों का भविष्य तय करने में लगे हैं.
"
हय  क्या घोम ! ( हाय यह क्या हुआ !)" गुणवती ज़ोर से चिल्लाई. सोमनाथ भी चौंक गया. अर्ज़ननाथ ओर शैलेश भौंच्चके से  हो कर रह गए. शीला दुल्हन बनी, सुम्रेश का हाथ थामे मुस्कुराती हुई मीना के साथ घर में प्रवेश कर रही थी. उनके पीछे पीछे तीन चार लोग भी अन्दर गए.
"
बधाई हो, राजदान साहिब, हमारे बेटे सुम्रेश ओर आपकी बेटी शीला ने आज कोर्ट में फार्मल शादी कर तो ली पर शीला का कहना है की जब तक आप लोगों का आशीर्वाद उसे प्राप्त नहीं होगा  और हाँ नहीं कहेंगे, वह शादीशुदा होते हुए भी, सुम्रेश के घर नहीं जाएगी." सुम्रेश के पिता ने सोमनाथ का हाथ बड़े ही प्यार से  अपने हाथ में ले लिया.सोमनाथ को कुछ भी नहीं सूझ रहा था. गुणवती मानो गूंगी हो गयी थी. अर्ज़ननाथ की नज़रे कभी सुम्रेश पर तो कभी शीला पर जा टिकती. शैलेश मंद मंद मुस्कुरा रहा था.
सबको असमंजस में देख शीला सुम्रेश को इशारा कर मीना को अपने साथ रख वह आगे बड़ी और सोमनाथ के पास जा कर खड़ी हो गयी." बोब्जी, अम्मा, मैं जानती हूँ आप को यह सब देख कर बहुत दुःख  हुआ है. आप लोगों को ठेस पहुंचाने की मेरी कोई मंशा नहीं थी. पर उस बाग में जीने से क्या फायदा जिसका माली मेहनत से फूलों को उगाये, संवारे,सजाये ताकि फूलों की खुशबू से सारा वातावरण महक उठे पर बाग़ के चारों ओर लगी काँटों की बाड ही उन जब फूलों को बींद कर मिटटी में मिलाने लगे तो एक फूल के पास ओर क्या चारा रह जाता है की वह मिटटी में मिल कर अपने बीज को हवा के सहारे किसी दूसरे बाग की शोभा फूल बन कर बढाये. मेरा ओर आपका समाज शायद यही चाहता है. बाग के पोधों  को, फूलों की क्यारिओं को आप जैसे माँ बाप सींचें, अपनी देख रेख में बड़ा करेंयह सोच कर कि इसके फल-फूल अपने ही समाज को प्राप्त हों जिससे हमारा यह समाज इन फूलों की महक से सराबोर हो सके पर........"
"
बस बस बेटी, मैं समझ गया. तुम ठीक कहती हो. मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है. आज तुम एक बाग छोड़ कर दूसरे बाग चली गयी, कल को दूसरा, परसों को तीसरा फिर कोई ओर. धीरे धीरे सब इस बाग को छोड़ कर चले जायेंगे.  अंत में एक सदी ऐसी भी आएगी, जब यह पूरे का पूरा बाग ही उजड़ने के कगार पर होगा. हमारा अपना अस्तित्व, हमारी संस्कृति, हमारी भाषा सब के सब लुप्त हो जायेंगे. बिलकुल लुप्त. इसका ज़िम्मेदार होगा हमारा यह अपना कश्मीरी समाज, इसके रीति रिवाज के बंधन और एक संकुचित सोच  और इस पनपती  हुई स्थिती से निपटने की असमर्थता जिसके कारण बरबस विवश होकर एक कश्मीरी लड़की/लड़के को अंतरजातीय जीवन साथी ढूँढ कर विवाह करना पड़ता है." यह कह कर सोमनाथ की आँखों से आंसू टपक पड़े. सोमनाथ ने सुम्रेश को गले से लगा लिया. अर्ज़ननाथ   और शैलेश बाकि लोगों के गले मिले. गुणवती अंदर आलत का थाल सजाने में लग गयी. मीना अपने मोबाइल पर दनादन ऍम   भेजने लगी.
----------------x-----------------------------------x--------------------------x
सर्वाधिकार सुरक्षित/ त्रिभवन कौल


.




,






.