Friday 4 November 2016

ज्वलंत प्रश्नों के साथ हमारी जिन्दगी ‘बस एक निर्झरणी भावनाओं की’

ज्वलंत प्रश्नों के साथ हमारी जिन्दगी ‘बस एक निर्झरणी भावनाओं की’
--------------------------------------------------------------
बस एक निर्झरणी भावनाओं की इस किताब का नाम पढ़ते ही पाठक स्वाभाविक रूप
से जो महसूस करेगा वह  की यह  पुस्तक चन्द उन  अनुभूतियों के बारे में
होगी जो हमें आमतौर पर अपने आस-पास देख कर होती है। लेकिन अपने ऐसे नाम
के बावजूद ये पुस्तक यथार्थ के धरातल पर दुपदी श्रंखला, चतुष्पदी
श्रंखला, पर्यावरण जैसी सामाजिक समस्याओं को भी पाठक के सामने ज्वलंत
प्रश्न के रूप में लाती है
यथा-
जो जल,वायु, भूमि प्रदुषण पर हम सब विचार करें।
धरती माँ अपने बच्चों से तब अनुकूल व्यवहार करें।

कवि विचारशील प्राणी है वो प्रदुषण की भयानकता को पहचानता है और चेताता
है की हमें अगर सृष्टि  को चलन है तो पर्यावरण पर ध्यान देना ही होगा।

कवि त्रिभवन कौल श्रीनगर(जम्मू कश्मीर) में जन्मे है उन्होंने देश पर
कुर्बान होते सैनिको को बहुत ही नजदीक देखा है और उनके देशभक्ति के जज्बे
को महसूस किया है उन्ही अनुभूतियों को पाठक से चतुष्पदियों में साझा करते
है--
पंचतत्व में शहीद का शरीर जब विलीन हो जाता है
देश पर शहीद वह, शहादत का परचम लहराता है।

बस एक निर्झरणी में कवि अपनी कविताओं को कोई पारंपरिक अर्थों में नहीं
बंधता कवि तो बस अपनी भिन्न-भिन्न परिस्थतियों को अपने मन से कागज पर सहज
ही झाड़ देता है जो पाठकों तक आते-आते कविता बन जाती है । ये शायद इसलिए
क्योंकि कवि का ये लेखन का तीसरा प्रयास है।
मुक्तछंद में लिखी ये कविताएं पढ़कर ऐसी अनुभूति देती है जैसे चांदनी रात
में नदी किनारे किसी पेड़ से झरते पत्ते।
कवि मापनी, सामंत या पदांत की बंदिशों से हट कर भावरस के साथ जब रचना को
प्रस्तुत करता है तो रचना झरने सी बहती हुई पाठक के दिल और दिमाग में उतर
जाती है। खुद त्रिभवन कौल जी कहते है--

"रचनाएं न तोलो छंद मापनी के तराजू में
मेरी भावनाओं को खुला आसमान चाहिए"

बेरुखी , जलालत,मुहब्बत,देशभक्ति,युग परिवर्तन, बेबसी या अहम् इन सब के
माध्यम से इंसान की सोच को बखूबी अपनी रचनाओं में दर्शाया है कवि की
रचनाएं जहां एक और रूहानियत और इंसानियत के किस्से कहती है तो दुसरी और
यथार्थ का चित्रण भी बखूबी करती है। यह पुस्तक उन काव्य प्रेमियों को
पूर्ण आनंद देगी जो इंसानी प्रेम को उस विराट उर्जा से जोड़ कर देखते है
जिसमे इन्सान का सिर्फ इन्सान से प्रेम नहीं बल्कि धरती , पेड़-पौधे, देश
से भी प्रेम है।
कबाड़ीवाला, स्वयंनाशी, मन, जानवर और आदमी, मेरी गौरैया, जागृति इन सब
रचनाओं में कवि ने किसी न किसी समस्या का हवाला देते हुए उसे एक प्रश्न
के साथ पाठक के सामने रखा है।

हम जंगली युग से वर्तमान युग तक सुसंस्कृत का टेग लगाकर आ पहुंचे लेकिन
जंगली युग के इतने लंबे फासले ने भी हमारे अन्दर से जंगलीपन को ख़त्म नहीं
किया हम आज भी सिर्फ अपने लिए ही जीते है फलस्वरूप नितांत अकेले अपने
खोखलेपन के साथ। कवि इस खोखलेपन को बखूबी महसूस करता है--

ग़मज़दा, ग़मगीन सभी, पर बेबस भला क्यों हैं?
हर जगह केवल बहस, "यह क्या हो रहा है?"

अपनी कविता के मानक स्वयं तय करते त्रिभवन कौल ने इंसानियत को तलाशने की
एक पहल करते "बस एक निर्झरणी भावनाओं की"में दिखते है। वो इस पुस्तक के
माध्यम से एक ऐसी तलाश का जोखिम लेते है जो बेहतर समाज और इंसानियत के
लिए बेहद जरुरी है। ये किताब ऐसे विचारों का लेखन है जो कहीं न कहीं कभी
न कभी हमारे मन में उबरते है और ज्वलंत प्रश्नों के साथ हमारी जिन्दगी
में आ खड़े होते है।
पुस्तक उपलब्ध  है :-  प्रकाशक :- हिंदुस्तानी  भाषा अकादमी , ३६७५ , राजापार्क, रानीबाग़ , दिल्ली -११००३४  या  अमेज़न  डॉट इन (amazon.in) पर I

*डॉ. किरण मिश्रा (समाजशास्त्री)
प्रिंसिपल एस.एस.पी.जी.कॉलेज
कानपुर उत्तर-प्रदेश
03-11-2016




No comments:

Post a Comment