Saturday 9 December 2017

कविता के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ।


जीवन ही जब चुनौतियों से भरा नहीं हो तो उस जीवन के क्या मायने। वह जीवन तो मृत समान  है। इस परिवेक्ष में कविता को देखा जाए तो कविता भी आज तक इसीलिए जीवित है चूँकि यह चुनौतियों के हर उस दौर से गुज़री है जिसमे उसे कभी  छायावादी  कभी प्रगतिवादी  कभी प्रयोगवादी कभी नव कविता  आदि के नामो से परिभाषित किया गया I कविता ने भी इन सभी दौरों में हर चुनौती को स्वीकार , अंगीकार कर अपने को संवर्धित और संरक्षित कर हर बार  एक नए रूप में अपने को प्रस्तुत किया है। वर्तमान समय  में हम पाते हैं कविता की चुनौती केवल उसकी उत्तरजीवता में ही नहीं  है अपितु उसकी संवृदि और निरंतर विकास में है। वर्तमान परिवेश में समकालीन कविता के उत्थान - विकसन में भी कुछ चुनौतियाँ हैं जो काव्य लेखन को गतिहीन कर रही है।

आज की कविता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पाठकों की कमी और कवियों की भरमार है। आज से कुछ दशक पहले पाठकों के समक्ष सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला ' जयशंकर प्रसाद , महादेवी वर्मा , रामधारी सिंह दिनकर , नागार्जुन , मुक्तिबोध और  हरिवंश राय बच्चन, त्रिलोचन , दुष्यंत जैसे नामचीन कवियों की कालजयी रचनाएँ थीलाखों में पाठक थे पर आज हम पाते हैं लाखों कवि हैं पाठक लगभग नहीं के बराबर हैं। भला ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए है कि लिखे जा रहे काव्य में कवि में संवेदनशीलता का गुण होते हुए भी कविता में वह धार नहीं है, वह पैनापन नहीं है ,वह नयापन नहीं है ,वह गहन वैचारिक भाव नहीं है और ना ही काव्य सौंदर्य के प्रति कवि की प्रतिबद्धता दिखाई देती जिसके कारण काव्य संसार भिन्न भिन्न वादों  में अपना रूप बदल कर पाठकों को अपनी और आकर्षित करता रहा है।  अगर आज की कविता को काल के चक्के की धुरी का काम करना है तो कवि समाज को ऐसी रचनाओं का उद्गम स्तोत्र बनना होगा जो सगर की भागीरथी के समान पाठकों को पुर्नजीवित कर सके। 

दूसरी चुनौती है आज का कवि कुछ ही समय में ही वह मुकाम पाना  चाहता है जिसे पाने में नाम चीन  कवियों को सालों साल लग गए थे। इस लालसा का असर उनके काव्य पर भी पड़ा है। देखा जाए तो हमारे समक्ष अधिकतर  जो कविता परोसी जा रही है वह कवि का एक जागरूक, सरोकारी  नागरिक रूप में कम और एक व्यक्तिगत परिवेश में अधिक है I जहाँ रूपक,अनुप्रास, उपमा, ,  यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा,अतिशयोक्ति, संदेह, , वक्रोक्ति आदि अंलकारों की कमी खटकती है।  जिस प्रकार से एक नारी का सौन्दर्य अलंकारों से निखर आता है उसी प्रकार से काव्य सौंदर्य भी विभिन्न अलंकारों की मोहताज होता है जो आज के कवियों के काव्य शिल्प में अधिक नहीं दिखाई देता। अलंकारों की कमी काव्य को मानो श्रीहीन बना रही हो। आज के कवियों को चाहिए के इन अलंकारों का पूर्ण रूप से अध्ययन कर अपने काव्य को अलंकृत करें। वर्ना बॉलीवुड के पिछले दशक के गानों /गीतों की तरह आज का काव्य भी कभी कालजयी नहीं बन पायेगा।

तीसरी चुनौती कविता को अंतर्जाल से मिल रही है। जहाँ की "वाह वाहकी चमक कविता के साथ एक बहुत बड़ा अन्याय कर रही है। कविता में सपाटबयानी की मात्रा अधिक और काव्यप्रवीणता  के गुणों का अभाव साफ़ नज़र आता है। छंदमय काव्य तो अपने शिल्प के विधि विधान के आधीन है पर छन्दमुक्त  कविता  के प्रलोभन में कर उसे भी गद्य का सा स्वरूप देना कविता की मूल परिभाषा को ही मानो चुनौती देना है। कविता का मूल स्वरूप उसकी विषय वस्तु  के प्रभावी प्रस्तुतिकरण में है, उसके लययुक्त तुकांत पंक्तियों में है, जो पाठकों को सम्मोहित  करती कविता के नाम को सार्थक करती है ना कि पाठक को लगे वह कविता के स्थान पर गद्य पढ़ रहा है।

चौथी सबसे बड़ी चुनौती जो आज की कविता के समक्ष है वह है कविता का बाज़ारीकरण होना यानि की वित्तीय लाभ के लिए प्रबंधन करने की प्रक्रिया।  इस प्रक्रिया ने आज के कवियों और प्रकाशकों दोनों को अपने लपेटे में ले लिया है। आज का कवि येन-केन-प्रकारेण छपना चाहता है और प्रकाशक छापने के लिए तत्पर। प्रकाशक के लिए तो हर तरफ से यह एक लाभ का सौदा है पर यह कवियों के लिए अधिकतर घाटे का सौदा ही साबित होता है और साथ ही कविता की गुणवत्ता नियंत्रण बाज़ारीकरण की भेंट चढ़ जाती है। और जब कविता की गुणवत्ता पर ही नियंत्रण नहीं हो तो आप समझ सकतें हैं कि कविताओं का स्तर क्या होगा।क्षोभ तो तब होता है जब छपने का आश्वासन और पुरुस्कारों / सम्मानों के प्रलोभनों पर कविता के रचना की कीमत कवि से वसूली जाती है। चलिये मान लेते हैं  कि कविताओं अच्छे स्तर की भी हों कुछ एक अपवाद छोड़ कर कविता कवि और प्रकाशक की मानो बंधक बन गयी है। खुद छापते हैं (सेल्फ पब्लिशिंग ) तो प्रचार -प्रसार की कमी ले डूबती है  और साझा संग्रहों में छपते हैं तो कवितायेँ  सम्मिलित कवियों के बीच तक ही वह सीमित रह जाती है। प्रकाशक के लिए दोनों तरफ से लाभ का ही सौदा है। इसी बाज़ारीकरण से में उन मंचीय कविओं को भी कविता को श्रीहीन बनाने में कुछ हद तक ज़िम्मेदार मानता हूँ पैसा कमाने के चक्कर में  तथ्यहीन कवितायेँ प्रस्तुत करना  ,स्टैंडअप  मसखरों के समान हास्य परोसना नए नए काव्य क्षेत्र में आये रचनाकारों के लिए एक ऐसा माप दंड स्थापित कर देते हैं जो आज की कविता को एक चुनौती देती प्रतीत होती है। 

त्रिभवन कौल
स्वतंत्र लेखक –कवि



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