इंद्रा ताई (कथा )
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क्षमा ने मोबाइल पर मिस काल देखी तो माथे पर हाथ मार
लिया। फिर व्हाट्स अप खंगाला। इंद्रा ताई का बुलावा आया था। उसने जल्दी से आफिस का काम समेटा
और इंद्रा ताई से मिलने उनके निवास की ओर निकल पड़ी।
क्षमा को 'आसकिरण ' नामक एन जी ओ को संभालते लगभग १५ वर्ष हो गए थे। सीमा पर या अंदरूनी हालात से जूझते हुए शहीदों की पत्नियों
को यह एन जी ओ उनपर
अचानक आयी त्रासदियों से ना केवल मुक्त कराती थी अपितु उनको उनकी
योग्यता और क्षमता की अनुसार विभिन्न
कौशलों में उनको पारंगत कर मान सम्मान का
जीवन भी प्रदान करती थी। मेट्रिक पास क्षमा का सिपाही पति भी आंतकवादिओं से लड़ते
लड़ते शहीद हो गया था। क्षमा को तब इंद्रा ताई की
इसी एन जी ओ ने सहारा दिया था। स्नातक की पढ़ाई करवाई और सूचना प्रौद्योगिकी
कौशल में डिग्री दिलवाई। शीघ्र ही वह इंद्रा ताई की दांया हाथ बन गयी थी।
इंद्रा ताई।
वही इंद्रा ताई जिसने इस एन जी ओ को आरम्भ कर वास्तव में आस की किरण से
शहीदों की पत्नियों में एक नवीन आशा का संचार किया। राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रिय
पुरुस्कारों से अलंकृत आसकिरण एन जी ओ का
सभी ऐसी गैर सरकारी संस्थाओं में एक बहुत बड़ा नाम था। इंद्रा ताई ने कालांतर में
धीरे धीरे क्षमा को एक तरह से इस एन जी ओ की बाग़डोर सौंप दी थी और स्वयं शहीदों के
बच्चों पर ध्यान देने हाथ लगी थी।
क्षमा के लिए ही
नहीं आसकिरण से जुड़े हर स्वयंसेवक के लिए इंद्रा ताई एक उदाहरण तो थी ही, एक
पहेली भी थी। ताज़े नारियल समान उनका
व्यवहार, किसी
के शहीद होने की सूचना पा कर अपने कमरे में जा कर रोना,
हमेशा श्वेत वस्त्रों को धारण करती पर जब भी हाल में ही हुए
किसी शहीद की पत्नी से मिलने जाती तो उनका एक सुहागिन जैसे वस्त्र धारण करना, सभी के लिए उत्सुकता का विषय बना रहा। किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि इस बारे में
उनसे कोई कुछ पूछे। माली काका ,जो उनके बारे में थोड़ा बहुत
जानते थे कब के गुज़र चुके थे। वास्तव में इंद्रा ताई का अतीत ही एक रहस्य था जिसे
क्षमा ने इंद्रा ताई से जानने के लिए बहुत
प्रयत्न किये पर इंद्रा ताई हर बार उसके प्रश्नो को मुस्कुरा कर,
पीठ पर एक धौल जमा कर टाल देती थी।
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65 वर्षीय इंद्रा ताई सोच में डूबी हुई डायरी को निहार रही थी
जब क्षमा ने खखार कर उसका ध्यान भटका दिया। चश्मे के ऊपर से देख कर इंद्रा ताई ने
उसे आँखों से पास बैठने का इशारा किया। क्षमा पास का एक स्टूल खींच कर उनके पास
बैठ गयी और इंद्रा ताई का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली, " ताई, मेरे को क्यों बुलवाया अचानक ?"
"वह
खूबसूरत नहीं था पर एक जवान की परिभाषा को सार्थक करता था."
इंद्रा ताई सम्मोहित
सी बोल रही थी। क्षमा अवाक थी। इससे पहले कि वह पूछती '
कौन ?', इंद्रा ताई ने अपने होठों पर ऊँगली रख कर उसे चुप रहने का
इशारा किया।
"मैं १८ वर्ष की थी और वह २० वर्ष का। उसका
नाम था वरुण। मेरी एक सहेली थी शाखा जो मेरी ही हमउम्र थी । हम तीनो ही एक ही समय पर अपने अपने घरों से निकलते I हम सभी दो किलोमीटर दूर स्थित एक कॉलेज में शिक्षारत
थे। वरुण मुझसे एक साल सीनियर था। बैडमिंटन का बेतरीन खिलाडी था। "
इंद्रा ताई चुप हो
गयी। उनकी आँखें बंद हो गयी। क्षमा ने उनके हाथ को सहलाया तो आंखे खोली। एक अजीब
सी चमक थी उन आँखों में। इंद्रा ताई हंसी।
" बेवक़ूफ़। मुझसे प्यार करने लगा था वरुण। "
"आपसे !"
क्षमा के मुँह से अचानक निकल गया। इंद्रा
ने फिर ऑंखें खोली। क्षमा को घूरा।
"अबके टोका तो
फिर कुछ नहीं सुन पाओगी " क्षमा ने
सर हिला दिया।
“१८ साल की थी।
सपने मेरे भी थे और उसके भी। मैं उसकी ओर आकर्षित ज़रूर थी पर प्यार ! प्यार का
विचार मेरे दिमाग में था भी और नहीं भी।
एक असमंजस की स्थिति थी। मुझसे जब भी मिलता गुलाब का एक फूल मेरे हाथों में
ना दे कर मेरे पैरों में गिरा कर फुसफुसा कर निकल जाता - मैं तुझ पर मरता हूँ। मेरी
सहेली शाखा ने मुझे बताया कि वह मुझसे प्यार करने लगा था।"
इंद्रा ताई ने डायरी
पर उँगलियाँ फिरानी शरू कर दी। साथ में पड़ा पानी के गिलास से दो घूँट पिए और फिर
शून्य में देखने लगी।
"एक दिन उसने
मेरे सहेली शाखा को कुछ बदतमीज़ लड़कों के चंगुल से बचाया तो मेरी आँखों में उसकी
इज़्ज़त और बढ गयी और शायद मुझे उस से एक लगाव सा होने लगा। यह लगाव उसके प्रति मेरे प्यार की पहली सीढ़ी
थी। मैं हमेशा उसके ' मैं तुम्हारे ऊपर मरता हूँ ' वाले वाक्य से चिढ़ती थी। यह भी कोई तरीका हुआ अपने प्यार को जताने का। मुझे मालूम था कि वह जान बूझ कर मुझे चिढ़ाता था। यह उसकी अदा थी या आदत , उस आयु में मेरे लिए निश्चय करना कठिन था। "
इंद्रा ताई ने डायरी
की कुछ पन्ने पलटे तो कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियां गिर पड़ी। इंद्रा ताई उन गिरे
हुए गुलाब की पंखड़ियों को एक एक करके उठाती रही और अपनी डायरी में सजाती रही।
" एक दिन तो वरुण ने हद हर दी। बैडमिंटन का
मैच जीत कर वह सीधा मेरे पास आया और सबके
सामने मेरा हाथ पकड़ लिया और घुटनों पर बैठ कर जोर से चिल्लाया " मैं तुम पर सचमुच मरता हूँ, इंद्रा "
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इंद्रा ताई चुप हो
गयी। आँखों में एक वेदना की , एक कसक की झलक दिखाई दी और चेहरा विषादित हो गया। आँखों से आंसू निकलने
लगे। क्षमा घबरा गयी। वह उठने को हुई तो इंद्रा ताई ने उसका हाथ थाम लिया और बैठने
को इशारा किया।
" मुझे वरुण का
सबके सामने हाथ पकड़ने पर उतना क्रोध नहीं आया जितना कि उसके चेहते वाक्य ‘मैं तुम पर सचमुच मरता हूँ ‘ पर और क्षमा, इस वाक्य ने ही मेरे जीवन की दशा और दिशा दोनों
बदल कर रख दी "
"कैसे ?" क्षमा बोल उठी पर इस बार इंद्रा ताई
ने उसके बोलने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
" मैंने ज़ोर से
उसे एक थप्पड़ मारा और चिल्लाई :- मेरे इस शरीर की सुंदरता पर क्यों मरते हो , जाओ फौज में भर्ती हो जाओ और देश के लिए मर
कर दिखाओ।“
" उसने कहा :-
ठीक है। फौज में मैं भर्ती हो जाऊंगा। तब मुझसे शादी करोगी। वरुण यानी इंद्र की
इंद्रा बनोगी। "
" मैं तैश में
थी क्षमा। मैंने भी सबके सामने कह दिया :- हाँ, करूंगी शादी तुमसे " इंद्रा ताई की ऑंखें फिर से नम हो गयी थी।
इंद्रा ताई ने अपने
दुप्पटे से आंसू पोंछे। यादें दिमाग में हमेशा क़ैद रहती हैं। अचानक किसी दिन
पैरोल पर बाहर निकल कर हमारे आस पास फ़ैल
जाती हैं और फिर सांसो के माध्यम से वापस दिमाग में फिर कैद हो जाती हैं। इंद्रा
ताई कुछ देर चुप रही मानो यादों को वह
साँसों के ज़रिये समेट रही हों। क्षमा
सोचने लगी कि वह क्या ऐसा कहे या करे कि
इंद्रा ताई अपनी कहानी जारी रखे। इंद्रा ताई ने डायरी के पन्नो को एक बार
फिर पलटा।
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"कुछ
ही दिनों में परीक्षा के बाद कॉलेज बंद हो
गया।" इंद्रा ताई क्षमा को बैठे रहने का इशारा कर उठी और अलमारी से अख़बारों
की कतरनो से चिपकी एक पुरानी फाइल ले आयी। देर तक उस फाइल को अपने हाथों से इस तरह
से साफ़ करती रही मानो अपने मन का बोझ साफ़ कर रही हों।
" मेरे
परिवार को को ही नही पूरे मोहल्ले को मेरे और वरुण के थप्पड़ वाली घटना के बारे में
पता चल गया था। पापा और माँ ने मेरी शादी करने की ठान ली। मैं अभी और पढ़ना चाहती
थी। साहित्य की ओर रुझान के कारण में
साहित्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करना चाहती थी। मैंने शादी से इंकार कर दिया।
हफ्ता भर घर में बवाल मचा रहा। माँ, वरुण
के प्रति मेरे प्यार को समझती थी पर नारी और पत्नी की दशा उस लहर की भांति होती है
जो बहुत जोर से किनारे पर तो आती है पर किनारे पर टिक नहीं पाती। चाहते हुए भी माँ
मेरी कोई सहायता नहीं कर पा रही थी। मेरी शादी ना करने की हठ के आगे पापा झुकने को तैयार नहीं थे। आखिर
वह दिन आ ही गया जब लड़के वाले मुझे देखने
आ गए। "
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इंद्रा ताई बोलते
बोलते थक कर निढाल हो गयी। वह कुर्सी पर बैठ गयी और सीने से चिपकायी हुई फाइल को डायरी के पास रख दिया और हंसने लगी।
क्षमा कभी सेट्टी पर पड़ी फाइल और डायरी को
देखती कभी इंद्रा ताई को। मौन का साम्राज्य तभी भंग हुआ जब क्षमा ने इंद्रा ताई से
आहिस्ता से पुछा " ताई , चाय बनाऊँ क्या ?"
"तूने
पीनी है तो बना ले , मेरी इच्छा नहीं है " क्षमा उठी और रसोई घर में जा कर चाय बना लायी। तब
तक इंद्रा ताई ने अपने को संभाल लिया था ।
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"क्षमा,
देखने में लड़के वाले बहुत शरीफ लगे। राजिंदर शर्मा नाम का लड़का भी मुझे अच्छा लगा पर कहीं न कंही वरुण की
याद हृदय में टीस पैदा कर रही थी।
पापा से मैंने शादी
ना करने की गुहार लगायी, रोई ,
गिड़गिड़ाई पर
उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। मेरी आगे की पढ़ाई की आकांक्षा पर वरुण का प्रकरण भारी
था।
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मंगनी का दिन था।
मैं तैयार हो रही थे कि शाखा ने आकर मुझे गले लगा लिया। उसका गले लगाने का मतलब था
कि वह कुछ कहना चाहती थी। मैंने उसे चिकोटी काटी तो उसने कहा, “ वरुण फौज में भर्ती हो गया है।“ मुझे काटो तो खून नहीं। मेरा सर घूमने लगा पर शाखा ने मुझे संभाल लिया।
बहुत से प्रश्न मेरे दिमाग को मथने लगे । मेरे को तत्काल किसी निर्णय पर पहुंचना
था। ऐसी परिस्थिति में निर्णय के भी दो नतीजे ही होते हैं। तत्काल लो या देर से,
दोनों हालातों में
पछताना भी पड़ सकता है। मैंने
तत्काल एक निर्णय लिया जिसमे शाखा भी मेरे निर्णय से सहमत थी।"
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इंद्रा ताई ने गिलास
से दो घूंट पानी के पिए और फिर क्षमा को खिड़की के परदे गिराने को कहा। कमरे में
धूप का पदार्पण हो चुका था।परदे गिरने से धूप का आना रुक गया था पर गर्मी का क्या।
गर्मी तो उस कमरे में व्याप्त थी अब चाहे वह धूप की हो या विचारों की।
"क्षमा जानती
हो , मैंने मंगनी पर आये बिरादरी के सभी सदस्यों के सामने
मंगनी से इंकार कर दिया। मेरे में वह साहस कहाँ से आया मुझे पता नहीं, पर मेरे इस निर्णय से पापा को
इतना गुस्सा आया कि मेरे अब तक के जीवन में पहली बार उन्होंने मुझ पर हाथ उठाया और
वह भी सभी के सामने । इससे पहले कि वह एक और थप्पड़ लगाते मेरे होने वाले ससुर
शर्मा अंकल ने उनका हाथ पकड़ लिया। माँ रोने लगी थी।
" यह क्या कर
रहे हैं आप शास्त्री जी। बिटिया की भावनाओं का आदर करना सीखिए। मैं यह अपने अनुभव
से कह रहा हूँ। मेरी अपनी बेटी पारिवारिक मान मर्यादा की बलि चढ़ गयी है। लड़कियाँ कभी भी अपने माता पिता के निर्णयों के विरुद नहीं जाती जब तक कि कोई ठोस
कारण ना हो। मैंने अपनी बच्ची को खो दिया पर आप इसका ख़याल जरूर रखना।“ शर्मा परिवार उठ कर चला गया।
बिरादरी वाले मुझे ताने दे कर चले गए। पापा ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। माँ
डरते डरते मेरे कमरे में आती और मुझे समझाने का प्रयत्न करती पर अब मैंने अपना
भविष्य तय कर लिया था। मैंने साहित्य की पढ़ाई आरम्भ कर दी।"
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"वरुण शाखा
के माध्यम से मेरे सम्पर्क में हमेशा रहा। एक साल बीत गया। एक दिन शाखा द्वारा
मुझे पता चला कि उसकी ट्रेनिंग समाप्त हो गयी थी और उसे कश्मीर भेजा जा रहा है।
उसकी ट्रेन हमारे शहर से ही गुजरने वाली थी। इस बार मैंने कोई बहाना नहीं बनाया।
मैंने पापा को वरुण के बारे में बताया और उससे मिलने की इच्छा प्रकट की। पापा ने इस
बार कुछ नहीं कहा। उनकी सहमति प्रत्यक्ष थी। मैंने पहली बार एक अनजानी पर बेहद
प्रसन्ता का अनुभव किया। माँ को गले लगा
कर , पापा के पैर छू कर शाखा के साथ स्टेशन की और निकल पढ़ी।
"
" क्षमा पहली
बार मैंने वरुण को भारत माँ के एक लाल के
रूप में देखा। हंसी तो जब आयी जब उसने
गाडी से उतर कर मुझे फौजी तरीके से
अभिवादन किया। हम दोनों बहुत खुश थे। पहली बार मैंने उसके हाथ को अपने कांपते हाथों में पकड़ा और उसकी आँखों में ऐसे देखने लगी जैसे एक चकोर
चाँद को देखता है। पहली बार मुझे उसके अपनत्व का आभास हुआ और फिर कुछ ऐसा हुआ जिसका
मुझे तनिक भी आशा नहीं की थी। सब कुछ पलक झपकते ही हो गया। वरुण ने अपनी जेब से एक
डिबिया निकाली और मेरी मांग में सिन्दूर भर दिया। मैं स्तब्ध सी किसी प्रकार की
प्रतिक्रिया देती , इससे पहले ही गाडी ने चलने के संकेत दे
दिया। वरुण ने अचानक मेरा हाथ जोर से थाम
लिया :- दूसरी बार मैं दूल्हा बन कर आऊंगा
और अपने वायदे को निभा कर तुमको अपनी पत्नी के रूप में ले जाऊँगा। :- कहता हुआ वरुण गाड़ी पर चढ़ गया। मुझे कहने का कुछ मौक़ा ही
नहीं मिला पर पूरे शरीर में स्पंदन की अनुभूति होने लगी। शाखा को मैंने जोर से गले
लगा लिया ।पत्नी तो वह मुझे बना ही चुका था। "
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इंद्रा ताई चुप हो
गयी। उस चुप्पी में शायद वह राज़ था जिसे मैं जानना चाहती थी। इंद्रा ताई मेरी
उत्सुकता को समझ रही थी। उन्होंने फाइल
में लगी अख़बारों की कतरनों को देखा और फिर
एक गहरी उसाँस लेकर उठ गयी। देर तक छत को देखती रही। मुझको ऐसा लगा इंद्रा ताई मानो किसी अदृश्य अस्तित्व से बात
कर रही थी। इससे पहले की मैं उनको फिर टोकू ,वह बोलने लगी , " क्षमा,
एक दिन खबर आयी कि वरुण
पांच आंतकवादियों को मार कर खुद भी शहीद हो गया था। शहर में तहलका मच गया।
टीवी ,
समाचार पत्र सभी वरुण की बहादुरी की कहानी कह रहे थे। मैं खामोश
हो गयी थी। अपने आप को कमरे में बंद कर लिया था । शाखा ने ,
पापा ने , माँ की मुझसे बात
करने की सारी कोशिशें बेकार हो गयी। दो
दिनों के उपरांत वरुण को पूरे सरकारी
व्वयस्था में शहर लाया गया। पूरा शहर उमड़ पढ़ा था वरुण के आखिरी दर्शन को। शाखा ने
बताया कि स्वयं मुख्य मंत्री महोदय वरुण की अंतिम यात्रा में शामिल हो रहे थे ।
तभी पापा ने मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।
"इंद्रा
बेटे ,
दरवाज़ा खोल बेटा , देख वरुण के पिताजी तेरे से मिलने आये हैं। " मैं बदहाल ,बदहवास, बावली उठी और कमरे
का दरवाज़ा खोल दिया। वरुण के पिताजी सामने हाथ जोड़े खड़े थे। मुझे कुछ सूझ ही नहीं
रहा था। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था।
"वरुण
ने यह खत तुम्हारे नाम लिखा है जो उसके एक
फौजी दोस्त ने मुझे दिया है , तुम्हे देने के लिए " वरुण के पिताजी की वाणी रुंद रही थी। बाप के कंधों पर अपने जवान बच्चे की लाश का बोझ
साफ़ नज़र आ रहा था।
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" क्षमा,
मेरे सारे शरीर को जैसे लकवा मार गया हो। पापा ने स्वयं वह पत्र
मेरे हाथों में थमा दिया। मैंने चिठ्ठी खोली।
:- प्रिय इंद्रा , मैं नहीं जानता कल क्या होगा। यह
आतंकवाद हमारे धीरज की परीक्षा ले रहा है।
अब और नहीं। आज ही हमारी यूनिट को 'खोजो और मारो' का हुक्म हुआ है। यदि -----यदि मैं देशहित के इस यज्ञ में आहुति
का पात्र बना तो अपना वादा याद कर , मेरी सुहागिन बन मेरी शहादत को मुखाग्नि ज़रूर देना। तुम जानती
हो शहीद हमेशा अमर होते हैं। इसका अर्थ वह हमेशा जीवित रहते हैं तो फिर तुम विधवा
का जीवन कभी भी नहीं बिताना। तुम्हारे हाथ में यह पत्र तुम्हारे इस वचन का प्रमाण
होगा। तुम्हारा अपना वरुण "
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इंद्रा ताई
फूट फूट कर रोने लगी। एक बाँध था जो टूट गया था। क्षमा को समझ नहीं आ रहा था कि वह
इस परिस्तिथि में क्या करे। लगभग १५ मिनट तक इंद्रा ताई रोती रहीं। फिर उठी। गुसलखाने गयी। मुँह हाथ धोये और फिर
आकर क्षमा के कंधे पर मुस्कुरा कर हाथ रख दिया।
"जा अब जाके
चाय बना ला। अपने लिए भी " इंद्रा ताई ऐसे बोली जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। चाय
लेकर में उनके पास पहुंची तो क्षमा ने प्याला इंद्रा ताई के हाथ में रख कर थोड़ा
हिचक कर पूछा , " फिर क्या हुआ इंद्रा ताई ? "
" फिर मैं
सुहागिन के जोड़े में शहीद स्थल पर पहुंची जहाँ उनका दाह संस्कार होना था। वरुण के
पत्र के बारे में तब तक सारे शहर को पता लग गया था। पूरा शहर उमड़ पड़ा था । 'जब तक सूरज चाँद रहेगा , वरुण तेरा नाम रहेगा '
नारों के साथ साथ मेरा नाम भी जोड़ दिया गया। स्वयं मुख्य मंत्री
मुझको चिता तक ले गए। पंडित जी ने मुझसे
उनकी चिता को अग्नि दिलवाई। मैं बिलकुल नहीं रोई पर पूरा प्रस्तुत हजूम रो रहा था। प्रातः काल के सभी
समाचार पत्र वरुण की शहादत और मेरे सुहागिन रूप के चित्रों से पटे पड़े थे। - वह
सामने फाइल देख रही हो ना उसमे मैंने एक एक कतरन संभाल के रखी है।" इंद्रा ताई फिर उठ गयी और डायरी
मेरी और कर दी। " क्षमा, मैंने उनसे विधिवत शादी नहीं की थी पर जब से उन्होंने मेरी मांग में सिंदूर भरा था , मैंने उनको अपना पति मान लिया था। माँ -पापा के और उनके पिता के लाख मनाने
पर भी मैं शादी के लिए राज़ी नहीं हुई। मैंने भारत की शहीदों के परिवारों के लिए
अपना जीवन समर्पण कर दिया। यद्यपि हमेश सफ़ेद कपड़ों में ही रहती पर किसी शहीद को जब
भी पुष्पांजलि देती तो उनकी बात ' शहीद हमेशा अमर होते हैं
तो उनकी पत्नियां विधवायें कैसे हो गयी' को स्मरण कर मैं हमेशा सुहागिन
के वेश में ही जाती रही हूँ। शायद अब ना जा संकू। वरुण का बुलावा आ गया है। "
कहते कहते इंद्रा ताई कुर्सी पर बैठ गयी।
क्षमा चौंकी। वह झटके से उठ कर इंद्रा ताई के पास आयी।
इंद्रा ताई भी अमर हो चुकी थी।
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/ त्रिभवन कौल
कृपया संज्ञान लें :-
"इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।"