अनुभूतियों
से अनुप्रमाणित
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प्राचीन
काल से ही काव्य रचनाएं मानव कल्याण एवं मानव ज्ञान को बढाने के लिए होती रही है। जब
हम हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखते है तो पाते है कि आदि काल से ही हिन्दी साहित्य मानवता का उन्नायक रहा है । आदिकालीन साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य तक जन
जीवन की अनुभूतियों से अनुप्राणित रहा है। इसी कड़ी में एक नाम जो जुड़ता है वो है त्रिभवन
कौल का जिन्होंने ' बस एक निर्झरणी भावनाओं की' लिख कर युगनुरूप लेखन को जन अनुभूतियों
से न सिर्फ जोड़ा है बल्कि यथार्थ के धरातल पर लाकर जनमानस को चेतावनी भी दी है यथा-
खंजर
सीने में खुद भोंक चुके है
जंगलों
को कंक्रीट बना चुके हैं
भू-ताप
वृदि के कारण भी हम हैं
इस
ताप में अब झुलस चुके है
कवि
न सिर्फ जनमानस को चेतावनी देता है बल्कि उसे सोचने पर भी मजबूर करता है कि उसने प्रकृति
के साथ क्या किया माँ प्रकृति का आरोप यह होगा..
जिसको
जनम दिया था मैंने
उसका
ही संहार किया है
अब
मुझसे क्या आशा रखते
खुद
तुमने अपना नाश किया है।
कवि
की कविताओं में रचनात्मकता है जिसके कारण उनकी रचनाएं समर्थ हो नई चुनौतियों और जरूरतों
के अनरूप विस्तृत और विकसित हुई है।
त्रिभवन
कौल अपनी रचनाओं में मानवतावादी दृष्टिकोण लेकर आए है वो सामान्य मानव की आशा, निराशा
उसके सपनो की बात करते है । वे मध्यमवर्गीय व्यक्ति के मन में सत्यों का उदघाटन करते
है। यथा-
मंहगाई
की मार, घोटालों की चमक
गिरते
मूल्यों के बीच नोटों की चमक
रोष
भरपूर है पर दोष किसे दूं
आम
आदमी हूं मन की किससे कहूं।
उनकी
रचनाओं में अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण है । कवि भोगे हुए सत्य को जीता है इसलिए
बेबाकी से अपनी बात कहता है वो कही-कही व्यक्तिगत पीड़ा का अंकन करता है तो कही विषमता
का विद्रोह का आक्रोश भी उनकी रचना में दृष्टिगोचर होता है यथा-
रात्रि
का अंधकार
मूक,
बधिर, अपेक्षित
जीवन
के आधारभूत मूल्यों को टटोलता
इंसानों
के अंतर्मन को समझने की कोशिश करता
आँखे
फाड़े गहन वेदना के साथ।
त्रिभवन
कौल की कविता जन-जीवन की अनुभूतियों से अनुप्राणित है । यह भीड़ का साहित्य नहीं है
। ये संत काव्य की तरह है जिसकी रचनाएं सामान्य मानव के हित की बात करती है उनके सुख
और दुःख की बात करती है । त्रिभवन कौल को 'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' के लिए अनंत
शुभकामना अच्छाइयों को गहराई से महसूस कराने
में कलम की सफलता का अभिनंदन है। आम
जन का साहित्य आम जन मानस के लिए उपलब्ध कराना सही मायने में साहित्यिक लोकतंत्र का
निर्माण और उसको संपुष्ट करना है। 'एक निर्झरणी
भावनाओं' की इस दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगी हमारा विश्वास है।
डॉ
पवन विजय
Dr.
Pawan K. Mishra
Associate
Professor of Sociology
Delhi Institute of Rural Development
New
Delhi.
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http://www.amazon.in/dp/8193272102
_/\_दोस्तों
'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' अब अमेज़न पर भी उपलब्ध है।
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डॉ पवन विजय
ReplyDeleteसाहित्यिक लोकतंत्र की ओर एक कदम.
October 15 at 8:43pm •
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Suresh Pal Verma Jasala
सुंदर भावों की अनुभूति,, हार्दिक अभिनंदन एवं बधाई
October 16 at 8:07am
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धरणीधर 'मणि' त्रिपाठी
कई ज्वलंत पहलुओं को उठाया है आदरणीय आपने... बस प्रतीक्षा है कि शीघ्र मिले और एक साँस में पढ जाऊँ
October 16
--------------------via fb/TL
ReplyDeleteडॉ. पवन विजय जी का हार्दिक आभारी हूँ जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकाल कर मेरी पुस्तक में काव्यसंकलन के सम्बन्ध में एक समीक्षात्मक लेख लिखा। उनको भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं :)
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Ramkishore Upadhyay
ReplyDeleteOctober 18 at 11:32pm
अति सुंदर ,,कमाल का लिखा जी
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