प्रसंगों की पावनता
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यूँ तो मानव जीवन लेना ही प्रभु कृपा का मधुर प्रसाद है किन्तु वे लोग जो माँ शारदे के पावन आशीष की समृद्ध छाँव में पलकर , साहित्य के माध्यम से माँ वीणापाणी की सेवा का आनंद पा रहें हैं , निश्चय ही भाग्यशाली हैं. माँ शारदे की असीम अनुकम्पा से ही आदरणीय त्रिभवन कौल जी भावनाओं के अगाध समुन्द्र का चिंतन-मंथन कर साहित्य सृजना में निरन्तर श्रम-परिश्रम, श्रद्धा लगन से नए नए आयाम गढ़ रहें हैं.
वास्तविकता के पटल पर इनकी सार्थक, संदेशप्रद, प्रेरणाप्रद एवं ज्ञानप्रद भावनाओं के इंद्रधनुषी रंगों में रंगी कवितायेँ सीधी दिलों को छूतीजी नज़र आती है. गांधी जी के तीन बंदरों की याद दिलाती इनकी रचना, आम आदमी की विवशता का साक्ष्य है :-
गाँधी जी के तीन बंदर
तीनो मेरे अन्दर
कुलबुलाते हैं
बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो
पर देखता हूँ, सुनता हूँ, कहता हूँ. क्यों ?
क्यूंकि मैं एक आम आदमी हूँ
स्वतंत्र होते हुए भी मैं पराधीन हूँ
वर्तमान में मंहगाई, घोटालों, गिरते मूल्यों को देख कर कवि हृदय मचल उठता है और उनकी सशक्त लेखनी आकुल हो लिख देती है:-
मंहगाई की मार, घोटालों की धमक
गिरते मूल्यों के बीच नोटों की चमक
रोष भरपूर है पर दोष किसे दूं
आम आदमी हूँ, मन की किसे कहूं
कवि की दार्शनिक दृष्टि तुच्छता में विस्तृत स्वरूप का आंकलन करती है और उनका व्यथित मन स्वयं से ही प्रश्न पूछता प्रतीत होता है:-
काम, क्रोध, लोभ और मोह
मेरे दिलो- दिमांग रुपी घर में बसा कबाड़
बाहर क्यों नहीं निकाल सकता
कब मैं खुद कबाड़ीवाला बन गया
मझे पता ही न चला
" बस एक निर्झरणी भावनाओं की" पुस्तक में भावनाओं को उलटफेर है जो भिन्न भिन्न परिपेक्ष में विभिन्न आयामों का दर्शन कराती है. लक्ष्य के प्रति सजगता का निरूपण करते हुए कवि की स्पष्टवादिता का दर्शन देखते ही बनता है:-
अर्जुन की तरह तुम ध्यान धरो
मछली की आँख, तीर पार करो
लक्ष्य तक का सफ़र, सहज तो नहीं
भटकायेंगे तुमको चोराहैं सभी
जो बीत गयी, कल बीत गयी.
कवि का हृदय ' उदरीपन के प्रति प्रतिक्रिया' के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए बिगड़े सामजिक ताने बाने को देख कर तड़प उठता है. वह चंचल मन की अस्थिरता का शब्द चित्रण प्रस्तुत करते हुए, सहजता से अनूठेपन की और ले जाता है:-
मन
कभी चंचल, कभी स्थिर
कल्पनाजनित भ्रमजाल उत्पन करता
आशा,निराशा,अपेक्षाओं और व्याकुलताओं का
मायाजाल बुनता हुआ, कभी
सत्य को मिथ्या और मिथ्या को सत्य में
परिवर्तित करता
यह मन
आवाहन की शब्द मणिकाओं को कितने सुन्दर सुव्यस्थित ढंग से पिरो कर अप्रतिम पंक्तिमाला तैयार की है यह उनकी बेजोड़ साहित्यक कलाकारी है:-
किसी कमल को कीचड़ से निकालो तो कुछ बात बने
किसी के ज़ख्मों पर मरहम लगाओ तो कुछ बात बने
ज़हर बाँटने वाले तो बसे हैं संसार के कोने कोने में
तुम समुंद्र मंथन कर अमृत निकालो तो कुछ बात बने
कविता की निम्न पंक्तियों में सागर की गहनता एवं हिमालय की उच्चता के दर्शन एक साथ होते हैं जो मन के भावों को तृप्त करती प्रतीत होती हैं:-
पत्थर जो हाथ आया तेरे, फितरत तेरी सरे आम हो गयी
मारक बना तो रावण बने, पूजा तो ज़िंदगी राम हो गयी.
सार रूप में कहूँ तो पुस्तक ' बस एक निर्झरणी भावनाओं की' में कवितायेँ जीवन की यथार्त एवं अनुभव के रंगों का श्रृंगार है. यह कवितायेँ कुंठा, त्रासदी, भय, निराशा ,दुःख, बिछोह आदि की पृष्टभूमि का पटाक्षेप करती हैं तो वहीँ सत्य, प्रेम ,आस, विशवास, सुख, आनंद के अलंकरणों से सुशोभित है जो जीवन दर्शन का समूह स्वरूप प्रदर्शित करती हैं . पुस्तक में प्रसंगों की पावनता के लिए आदरणीय कौल साहब अभिनंदनीय हैं. प्रेरक तत्वों से पूर्ण यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है.
अशेष शुभकामनाओं सहित
सुरेशपाल वर्मा जसाला
(कवि एवं साहित्यकार)
1/4332 श्रीराम भवन
रामनगर विस्तार, शाहदरा -दिल्ली -110032
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_/\_दोस्तों
'बस एक निर्झरणी भावनाओं की' अब अमेज़न पर भी उपलब्ध है।
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