नियति
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कली ने कहा बहार से
हर ले उदासी मेरी
मझे नया संसार दे
स्वीकार हुई उसकी प्रार्थना
बहार ने कली को फूल बना दिया
फूल फूल बन कर भी खुश न रहा
मंदिर में रहा तो कभी बालों में सजा
तो कंही मसला गया
पर हर बार बार बार डाली से तोडा गया
डाली फूल से अलग हुई
गुमनाम से मायूसी चहरे पर लिए
पतजड़ के पेड़ के समान
करती रही फिर इंतज़ार
बसंत के आने का,
कालचक्र के घूमने का
पता है कल फिर बहार आएगी
खुशियों की सौगात लाएगी
ग़मों को समेत समेट ले जाएगी
फिर भी है उथल पुथल
समुन्द्र में लहरों की भांति
क्यूंकि हावी रहती है समय पर
हमेशा मन की दुविदा
और मन की उलझन
यही तो नियति है .
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सर्वाधिकार सुरक्षित/त्रिभवन कौल