Saturday 30 January 2016

यूँही ज़रा बैठे ठाले



यूँही ज़रा बैठे ठाले :- ड्राइंग रूम के कोने
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श्री रामकिशोर उपाध्याय द्वारा रचित काव्य संकलन ' ‘ड्राइंग रूम के कोनेजब मेरे हाथ में आया तो पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर छपे पुस्तक शीर्षक ने हठात ही मेरा ध्यान खींच लिया. ‘‘ड्राइंग रूम के कोने ! यह क्या शीर्षक हुआ भला ? एक अमूर्त कलाकृति की तरह ! अपनी समझ में तो भाई, नहीं आया. कविताओं की सूची देखी तो इसी शीर्षक की एक कविता से साक्षात भेंट हुई. बहुत ही गहरा विचार रखा है कवि ने. आज का व्यक्ति बहुत ही छोटा हो गया है. मन से, कर्म से बोना हो गया है. सत्य ही तो लिखा है. पर ऐसा कैसे ? ‘‘ड्राइंग रूम के कोनेनामक शीर्षक पूरे काव्यसंग्रह के लिए भला सार्थक कैसे सिद्ध हो सकता है? माथा पच्ची करने से क्या होता है. अपने ही खून का दौरा तेज़ होने लगता है. पर 'ड्राइंग रूम के कोने'..........माथा पच्ची तो करनी ही पड़ेगी भाई.

बच्चे का नामसंस्कार ऐसे भी तो नहीं किया जाता. बहुत ही सोच समझ कर, परख कर, पंचांग देख कर ही तो नामसंस्कार होते हैं. यहाँ भी तो एक बच्चे का सवाल है भाई. पुस्तक, जो एक लेखक के लिए तो एक नवजात शिशु के समान है. कुछ सोच कर ही कवि ने अपने इस काव्यसंग्रह का नामकरण 'ड्राइंग रूम के कोनेरखा होगा. पर क्या ? मैं यह सोचने लगा. आरम्भ से रचनाओं की नौका में बैठ कर भावनाओं की सरिता में बह कर, विचारों के भिन्न भिन्न कटावों को पार कर कवि की सभी काव्य अनुभूतियों का रसपान करने लगाधीरे धीरे इस नौका में आसन जमाये दिल को सहजता से सरलता से छू लेने वाली रचनाओं में गोते लगाने लगा. फिर भी समझ नहीं पाया कि ' ड्राइंग रूम के कोने ?????

मैं भी हठी हूँ भाई. जिस काम को एक भारतीय हाथ में ले लेता है उसको पूरा कर के ही उठता है या उठ जाता है. हर हर महादेव की हुंकार लगा भाई, मैं  अपने ड्राइंग रूम के कोने में कुर्सी डाल बैठ गया और ठान ली कि ' ड्राइंग रूम के कोनेशीर्षक के रहस्य से पर्दा उठा के ही रहूंगाउसी न्यूटन की भांति जो सेब को नीचे गिरता देख आरम्भ में यह नहीं समझ पाया था कि सेब पेड़ से नीचे ही क्यों गिरता है ऊपर क्यों नहीं जाता. तो साहिब कुर्सी डाल कर अपने ड्राइंग रूम के कोने को एकटक देखने लगा. कवि ने भी शायद यही किया होगा. चाय की चुस्कियों के बीच में वह लिखते होंगे और ड्राइंग रूम के कोने को देखते होंगें. नहीं… ?
मैं भी ड्राइंग रूम के अपने उस कोने को बड़े ही गौर से आँखे फाड़ फाड़ कर देखने लगा. हाथ मेंड्राइंग रूम के कोनेऐसे लग रही थी मानो चिड़ा रही हो. कुछ घंटों पढ़ने और देखने के बाद, दिमाग की LED में मानो प्रकाश हुआ. बात समझ में आई. एक निष्कर्ष पर पहुँच गया  और यूरेका यूरेका बरबस मुँह से निकल गया . ड्राइंग रूम के कोने कृति का रहस्य साफ़ और स्पष्ट था. भाई दाद देनी पड़ेगी कवि की वैचारिक विशालता की.

वाह वाह उपाध्याय जी क्या बात है ! क्या सोच समझ कर आपने इस काव्यसंग्रह का शीर्षक चुना है. बात समझ में गयी. जैसे ड्राइंग रूम के छत के दो कोने, नीचे फर्श के दो कोने और मध्य में दो दीवारों को मिलाता लम्ब जैसे कोना जो छत और फर्श को मिला कर सभी कोनो को सुदृढ़ता प्रधान करता है वैसे हीड्राइंग रूम के कोनेकाव्यसंग्रह को भावनाओं की सशक्त पर सरल और सहज अभिव्यक्ति, इंद्रधनुषी वैचारिक एवं चिंतन शक्ति, काव्यसौंदर्य के प्रति कवि की प्रतिबद्धता, सत्यवादिता एवं स्पष्टवादिता और यथार्थ क़े धरातल जैसे कोनो पर टिकी ड्राइंग रूम में ही रचित कवि ने काव्यसंग्रह को "ड्राइंग रूम क़े कोने" के नाम से सुशोभित कर अपने संग्रह को सार्थक किया है यह अब मेरा मानना है. अगर नहीं  तो आप ही बताएं.........क्यों नहीं ?
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त्रिभवन कौल/26-01-2016


4 comments:

  1. via fb/YUSM
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    Deo Narain Sharma सुन्दर और सराहनीय कार्य।
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    Sushma Singh बहुत सुंदर सार्थक कृति
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    Rajinder Singh Arora
    Very nice
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    Sanjay Kumar Giri
    इस सुन्दर आयोजन की सुन्दर तश्वीर के साथ --साथ "ड्राइंग रूम के कोने"पुस्तक की सुन्दर समीक्षा की आपने आदरणीय ------इस काव्यसंग्रह का शीर्षक अति उत्तम एवं सार्थक चुना है आदरणीय उपाध्याय जी ने ,
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    Mona Singh
    वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह् आदरणीय ।उत्तम शीर्षक और सार्थक अभिव्यक्ति।वआह्ह्ह्ह्ह्ह्ह् अति सुन्दर
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    Sangita Goel नमन सभी को
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    गुप्ता कुमार सुशील
    उत्तम आलेख आदरणीय जी , सादर नमन |
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    Brahma Dev Sharma
    वाह्ह्हह्ह
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    Poet M Hussainabadi Mujahid
    Wahhhhhhhhhhh
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    प्रमोद तिवारी हंस वाहहहहह लाजवाब
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    संगीता सिंह 'भावना' शानदार सृजन
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    Musafir Vyas
    शानदार । अभिनंदन आदरणीय भाई साहब
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  2. Ramkishore Upadhyay
    February 1 at 10:49am
    आ. Tribhawan Kaul जी आपका इस सुंदर और प्रेरक समीक्षा के लिए ह्रदय से आभार ..आशा है यह मुझे और अच्छे सृजन के लिए उत्प्रेरण का कार्य करेगी .........सादर नमन
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  3. Om Prakash Shukla
    February 2
    मै स्वयं आज तक इस संसय मे था किंतु आज निः संदेह आपकी यह समीक्षा पढ़कर बहुत कुछ विचार बदले ,, एक एक रचना इस संग्रह की प्रसंसनीय है ।
    अभिनन्दन है आपकी मेहनत के लिए ।सादर नमन।
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  4. Shipra Shilpi
    February 1
    वाह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह् आदरणीय सर बहुत ही सधे रोचक और मनमोहक रूप में आपने "ड्राइंग रूम के कोने" की समीक्षा प्रस्तुत की है। नमन है आदरणीय रामकिशोर उपाध्याय सर के अद्भुत वैचारिक विशालता को और नमन करती हूँ आपकी पारखी दृष्टि को ।यकीनन आपकी समीक्षा को पढ़कर ड्राइंग रूम के कोने को पढ़ने की लालसा अति तीव्र हो गयी है ।सादर नमन आप दोनों को ।।।।
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