"बोलो
गंगापुत्र " :- लुप्त प्रश्नों की समाधान गाथा
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माना
कि समाज के लिए साहित्य दर्पण का कार्य करता है।
माना कि साहित्य कभी कभी समाज की दिशा और दशा दोनों तय कर सकता है। माना कि
राजनीति और समाज दोनों एक दुसरे के पूरक हैं
लकिन बहुत कम जानते हैं कि साहित्य, समाज और
राजनीति के मध्य एक उस पुल के समान है जिस
पर हर गुज़रनेवाला पुल की महत्ता को अनदेखा
नहीं कर सकता। पुल चाहे कितना भी छोटा क्यों ना हो, दो छोरों को मिलाने का कार्य करने
के साथ साथ आस पास के दृश्यों में वह कई प्रश्न मन में छोड़ जाता है जिनके उत्तर पाने
के लिए यात्री छटपटाता रहता है। प्रश्नों से
कोई भी अछूता नहीं रहता । कुछ दृश्य रुपी प्रश्न तो ऐसे होते हैं कि चिरकाल तक आपके
वैचारीक शक्तिः को प्रभावित करते रहते हैं और आप उनके उत्तर खोजने निकल पड़ते हैं। डॉ.
पवन विजय द्वारा रचित या कहिये निर्मित ' बोलो गंगापुत्र' एक ऐसा ही पुल है जो ,यात्रियों को (पाठकों को ) महाभारत के एक महानायक भीष्म पितामह द्वारा उठाये गए
प्रश्नों के समाधान हेतु , उन दृश्यों को जीवंत करने में सक्षम हैं जिनके अंतस
में उन सभी प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं जिनकी कल्पना किसी भी यात्री ने नहीं की हो।
'महाभारत'
ग्रन्थ को भारत का साधारण जनमानस एक धार्मिक, एक अनुकरणीय और दार्शनिक ग्रंथ मानता
है। कुछ प्रतिशत बुद्धिजीवियों को छोड़ कर आधुनिक काल में बच्चों से लेकर बड़ों तक महाभारत
की छवि केवल या तो भगवान श्रीकृष्ण की श्रीमद्भगवद्गीता तक ही सीमित है या किसी भी
लेखक द्वारा अपनी धारणाओं के अनुसार प्रसारित पुस्तकों, पत्रिकाओं , टीवी सीरियलों
,मंचो द्व्रारा महाभारत को सत्य - असत्य , न्याय - अन्याय , अहंकार- विनम्रता के बीच के संघर्ष के रूप में दर्शाया जाता
है। लेकिन शायद ऐसा नहीं है। डॉ. पवन विजय
' बोलो गंगापुत्र ' के रूप में हमारे सामने एक ऐसा दस्तावेज लायें हैं जिसमे
इन मिथकों को कुछ हद तक अनावरण करने के साथ साथ उन तथ्यों की व्याख्या भी की है जिनसे
हम सभी अनभिज्ञ रहे हैं।
मनुष्य
सामाजिक प्राणी है यह तो हम अपने अध्ययन काल से ही पढ़ते आये हैं और इसी समाजिक प्राणी
से ही सत्ता का निर्माण होता है। समाज फिर दो भागों में बंट जाता है। एक शासक और दूसरा
शासित। यहाँ शासक का अर्थ एक मनुष्य मात्र से नहीं अपितु उस समहू से है जो समाज की
दूसरी इकाई पर बनाये गए नियमों के अनुसार शासन करता है। यदि शासन ही उन नियमों का पालन
नहीं करे तो सत्य की बलि होना निश्चित है और झूठ का सत्यापन अन्य पात्रों की चेतना
के निहित स्वार्थ और अक्षमताओं की धुंध में
हो नहीं सकता। महाभारत की कथा भी मेरे लिए
एक धुंध के समान ही रही जिसके पार स्पष्ट देखने की मेरी विश्लेषण अक्षमता आड़े आती रही। लेकिन कुछ हद तक यह धुंध हटने लगी है।
' बोलो गंगापुत्र ' के प्रश्न और उत्तर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वह उस काल
में होते, यदि यही प्रश्न वेदव्यास ने उठाये होते पर शायद तब हमारे समक्ष ' महाभारत'
ग्रन्थ किसी दुसरे ही रूप में होता। यह तो स्थापित है कि नियति को बांधने की चेष्टा हमेशा विफल ही रही है।यह नियति ही है कि इन सभी प्रश्नो के उत्तर महाकाव्य में गुथे होने के बावजूद भी ,तीरों से बीधें भीष्म को इस युग में ' बोलो गंगापुत्र ' में खोजने पड़े और यह लेखक की उच्च स्तरीय व्याख्यात्मक विश्लेषण योग्यता ही है
कि हर उत्तर प्राप्ति के साथ भीष्म पितामह का शारीरिक और मानसिक तनाव घटता चला जाता
है जिसका अंत वासुदेव सहित सभी सगे सम्बन्धियों
के सम्मुख भीष्म पितामह के निर्वाण प्राप्ति
में होता है
पितामह
भीष्म के रूप में महाभारत एक ऐसे पात्र हैं जो एक त्याग,अनुराग, नैतिकता , निरपेक्ष
, धर्म का प्रतीक रहे हैं पर क्या वास्तव में ऐसा है या था। त्याग क्यों किया गया
? अनुराग किसके प्रति था ? नैतिकता के अर्थ समयानुसार /कथानुसार गुम क्यों हो गए ?
निरपेक्षता का सिद्धांत कहाँ तक सफल रहा ? और धर्म वास्तव में सत्य के प्रति उदासीन
क्यों रहा? क्यों ? क्यों ? यह प्रश्न जब किसी विचारक को कटोचते हैं तो ' बोलो गंगापुत्र
' का पुस्तक रूप में अवतरण होता है। प्रश्न तब भी थे पर लुप्त थे। अपवाद को छोड़ दें
तो तो एक परिवार में ,एक मोहल्ले में स्थापित निवासियों के कल्याण संघ, एक राजनीतिक
पार्टी , एक संस्था, और सत्ता/ असत्ता से जुड़े
आज भी जो सक्षम हैं ,अहंकारी है, निजी हितचिंतक हैं , कुतर्कों द्वारा अपने निर्णयों
को न्यायोचित ठहरने वाले हैं , नारियों के
प्रति असम्मान की भावना रखते हैं , देश के प्रति अनिष्ठावान हैं । आज भी वही प्रश्न
हमारे सामने उपस्थित हैं। वास्तव में महाभारत
के सभी पात्र आज भी जीवित हैं और उनमे भीष्म जैसे उन सभी प्रश्नो के उत्तर आज की समाजिक
व्यवस्था में तलाशते फिरते हैं।
डॉ
पवन विजय कवि बाद में हैं सर्वप्रथम वह एक विचारक और समाजशास्त्री के रूप में हमारे
समक्ष आते हैं। ' बोलो गंगा पुत्र ' में शरशैया
पर स्थापित पितामह भीष्म के अंतस में वह सभी
प्रश्न उठते हैं जिनका निवारण एक विचारक और
समाजशास्त्री ही चाह सकता है। पाठक के रूप
में मुझे भी महाभारत काव्यग्रंथ से वह उत्तर
नहीं मिल सके जिनकी अपेक्षा में वेदव्यास से करता था। डॉ पवन विजय ने उन मानवीय प्रश्रों के उत्तर ; काल/समय , वासुदेव कृष्ण , गंगा , अश्वत्थामा, संजय जैसे महाभारत के पात्रों से ही दिलवाये जिससे '
बोलो गंगापुत्र ' की प्रतिष्ठा समकालीन साहित्यआकाश में ध्रुव तारे के समान हो सकती
है।
"बोलो
गंगापुत्र " के एक साधारण पाठक की और से डॉ पवन विजय जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें।
त्रिभवन
कौल
स्वतंत्र
लेखक –कवि
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पुस्तक
:- बोलो गंगापुत्र
लेखक
:- डॉ. पवन विजय
प्रकाशक
:-रेडग्रैब बुक्स , इलाहबाद , उ प्र।
कीमत
:- ९९/= रूपये मात्र।
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एक पठनीय उपन्यास । सुन्दर समीक्षा । बधाई आप दोनों को
ReplyDeleteहार्दिक अभिनन्दन एवं आभार :) _/\_ :)
DeleteComments via/FB/ युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (न्यास).
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Raj Kishor Pandey 10:22pm Jan 21
आपके द्वारा इस पुस्तक के बारें में इतनी जानकारी दी गयी बहुत बहुत आभार आपका
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Savita Saurabh 10:25pm Jan 21
बहुत सुंदर सार्थक समीक्षा पुस्तक की।"बोलो गंगा पुत्र" के प्रति सहज ही मन आकर्षित होता है। हार्दिक आभार आदरणीय 🙏
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Deo Narain Sharma 10:38pm Jan 21
एक सुन्दर पुस्तक की जानकारी सराहनीय ह़ै ।
आपका सृजन भावाभिव्यक्ति प्रशंसनीय है।
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ओम प्रकाश शुक्ल 10:39pm Jan 21
उत्कृष्ट समीक्षा,, सादर अभिनन्दन आदरणीय, बहुत सुन्दर कृति,, डॉ पवन विजय जी को हार्दिक शुभकामनाएं ।।
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गुप्ता कुमार सुशील 12:43am Jan 22
वाह्ह् अति उत्तम प्रस्तुति आदरणीय
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comment via fb/TL
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डॉ किरण मिश्रा
January 22 at 4:06pm
बेहतरीन समीक्षा
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Ramkishore Upadhyay
January 21 at 8:07pm
हार्दिक बधाई आप दोनों को
via fb/ट्रू मीडिया साहित्यिक मंच.
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Omprakash Prajapati 8:29am Jan 22
बधाई जी
comments via fb/TL
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Udan Tashtari
अनेक शुभकामनाएं ...निश्चित ही समकालीन साहित्यआकाश में ध्रुव तारे के समान ही प्रतिष्ठा हो...मंगलकामनाएं---
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Dharmesh Singh
वाह ! शरल शब्द
वर्णन बहुत सुंदर !
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Yogi Arun Tiwari
बहुत-सुंदर
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कुमार मनीष
बहोत शानदार गुरु जी
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Arun Singh Bolo
ganga putra ek behtreen soch ka parinam
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Ramkishore Upadhyay
हार्दिक बधाई
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